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कविता

हमारे प्रभु, औगुन चित न धरौ

सूरदास


हमारे प्रभु, औगुन चित न धरौ।
समदरसी है नाम तुहारौ, सोई पार करौ।
इक लोहा पूजा मैं राखत, इक घर बधिक परौ।
सो दुबिधा पारस नहिं जानत, कंचन करत खरौ।
इक नदिया इक नार कहावत, मैलौ नीर भरौ।
जब मिलि गए तब एक-वरन ह्वै, सुरसरि नाम परौ।
तन माया, ज्यौं ब्रह्म कहावत, सूर सु मिलि बिगरौ।
कै इनकौ निरधार कीजियै, कै प्रन जात टरौ।।


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